8 मार्च को पूरे देश और दुनिया में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया गया। वह दिन जब महिलाएं एकजुट होकर अपने बीते संघर्षों की जीत में जश्न मनाती हैं और आनेवाले संघर्षों को चुनौती के रूप में स्वीकार करके उससे लड़ने का साहस जुटाती हैं। हमारा देश, धर्म, जाति, समुदाय के साथ कई सांस्कृतिक क्षेत्रों में बंटा हुआ है। इस लेख के ज़रिये आज हम बात करेंगे मध्य भारत में आदिवासी बहुल राज्य छत्तीसगढ़ और झारखंड से आनेवाली आदिवासी महिलाओं की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों के बारे में। जानेंगे उन समुदाय के बारे में जो आंशिक रूप से मातृसत्तात्मक समुदाय से होने का दावा तो करते हैं लेकिन उनके सामाजिक व्यवहार में पितृसत्ता का बोलबाला है।
वह समाज जहां आज भी महिला की कोई अपनी पहचान नहीं है। उनकी पहचान किसी ख़ास रिश्ते में ही सिमटकर रह गई है। दरअसल, आदिवासी समुदाय जिस रूढ़िवादी प्रथा की बात करते हैं उसके नियम-कायदे केवल महिलाओं के लिए बने हैं। यह समुदाय जिस लैंगिक समानता की बात करते हैं उन घरों में, उस समाज में ‘अनचाही बेटियां’ एक लड़के की आस में पैदा की गई हैं।
आदिवासी समुदाय संविधान द्वारा प्रदत अनुच्छेद 13 की दुहाई देते हुए रूढ़ी प्रथा के नाम पर अपनी महिलाओं के आर्थिक और सामाजिक आज़ादी का हनन करता है। उन पर तरह-तरह के पाबंदियां लगाता है। उसी अनुच्छेद में पहली शर्त यह रखी गई है कि जहां पर मौलिक अधिकारों का हनन होगा वहां सभी कानून शून्य पड़ जाएंगे। जहां किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया जाएगा वहां कोई भी कानून मान्य नहीं होगा। ऐसा ही एक फैसला सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में धारा 377 के तहत दिया था सुप्रीम कोर्ट का साफ कहना था कि “यदि कोई कानून मौलिक अधिकारों का हनन करता है तो उसे निरस्त करना अदालत का कर्तव्य है।”
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यह समाज रूढ़िवादी प्रथा के पक्षधर इसीलिए है क्योंकि इसी प्रथा ने कई सहूलियत दी हैं मातृसत्तात्मक समाज से होने के बावजूद। हालांकि, कोई महिला ऐसा दावा नही करती कि वह मातृसत्तात्मक प्रधान समाज से है अक्सर ऐसा पुरुष ही कहते हैं। समुदाय के पुरुषों को पितृसत्ता के सारे विशेषाधिकार मिले हैं। दरअसल, आदिवासी समुदाय के पुरुष रूढ़िवादी प्रथा और ग्राम सभा के सामाजिक फैसले को महिलाओं को नियंत्रण में रखने के लिए एक हथियार की तरह उपयोग करते हैं।
ग्राम सभा की सामाजिक बैठकों के बारे में हसदेव अरण्य आंदोलन में मुख्य भूमिका निभानेवाली सामाजिक कार्यकर्ता शकुंतला एक्का का कहना था, “ग्राम सभा की बैठकों में ग्रामीण महिलाएं केवल एक भीड़ होती हैं। वे सामाजिक निर्णयों में निर्णायक की भूमिका नहीं निभाती न ही पुरुष उनके फैसलों का सम्मान करते हैं पुरुष तीखे तेवर में कहते हैं कि क्या महिलाएं पुरुषों से ज्यादा जानती हैं? समुदाय में पुरुषों का व्यवहार आज भी हावी ही है। हालांकि, छत्तीसगढ़ में अब बहुत ही धीमे बदलाव नज़र आ रहा सामाजिक बैठकों का परिदृश्य बदल रहा है महिलाएं गलत के खिलाफ आवाज़ उठाती हैं और अपनी बात रखती हैं।”
दरअसल, आदिवासी समुदाय जिस रूढ़िवादी प्रथा की बात करते हैं उसके नियम-कायदे केवल महिलाओं के लिए बने हैं। यह समुदाय जिस लैंगिक समानता की बात करते हैं उन घरों में, उस समाज में ‘अनचाही बेटियां’ एक लड़के की आस में पैदा की गई हैं।
दूसरी ओर झारखंड में संथाल समुदाय से आनेवाली समाजशास्त्र की सहायक प्राध्यापक रजनी मुर्मू का कहना है, “आदिवासी समुदाय में समानता की संकल्पना वहीं खत्म हो जाती है जहां पर समुदाय अपनी बेटियों को संपत्ति का बराबर हिस्सेदार नहीं बनाते।” आगे वह कहती हैं कि ग्राम सभा जो कि इस देश के आदिवासियों की पहली मूल राजनीतिक इकाई है इस में भी सामाजिक बैठकों में कोई भी महिलाएं निर्णय समिति की सदस्य नहीं होती उसके साथ हुए आपराधिक घटनाओं में भी पीड़ित को ही दोषी समझा जाता है। साथ ही ऐसी बैठकों में उसे बैठक से दूर रखा जाता है और बैठक में से एक आदमी उसका बयान लेकर निर्णायक समिति को सौंपता है। प्रत्यक्ष रूप से वह अपने साथ हुए घटनाओं को विस्तारित रूप से बताने के लिए मौजूद नहीं होती पहले से ही मानकर चला जाता है कि पीड़ित ही दोषी होगी और उसके साथ न्याय में भी भेदभाव किया जाता है।”
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आदिवासी समुदाय गर्व से अपने मंचों से उद्घोषणा करता है कि बेटियों के मामले में वह सभ्य समाज से अधिक प्रगतिशील और आधुनिकता का समर्थक है जिस तरह से मुख्यधारा में भ्रूण हत्या दहेज प्रथा बाल विवाह जैसी कुप्रथा मौजूद हैं वैसा यहां के समुदायों में नही। इसी सिलसिले में मैंने इस समुदाय से आनेवाली कई महिलाओं से बात की। उनमें से एक महिला जिनका नाम सोनवारी हैं वह साफ़ शब्दों में अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए कहती हैं कि उनके नाना ने 7 बेटियां होने के बावजूद पहली पत्नी से बेटा नही होने के कारण दूसरी शादी कर ली थी। यह लगभग 50 या 60 के दशक की बात है।
यह सिलसिला अभी वर्तमान में भी कई जगह प्रचलित है जहां आदमी दूसरी शादी तो नहीं करता लेकिन बेटे की चाह में बेटियों की लंबी कतार खड़ी करता रहता है। इसी कड़ी में मैंने एक और महिला से बात की जो वर्तमान में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं, साथ ही वह गांव में ग्रामीण महिलाओं को परिवार नियोजन की जानकारी प्रदान करती हैं। लेकिन परिवार नियोजन का वास्तविक मतलब क्या है यह उसके निजी जीवन में नहीं दिखता आज भी उसका पति चार बेटियां होने के बावजूद बेटे के लिए मानसिक रूप से प्रताड़ित करता है। वह कहती है, “गांव समाज और परिवार बेटा ना होने पर कुल की जिम्मेदारी कौन आगे लेकर जाएगा इस आस में महिलाओं को ताने देता है अब वर्तमान दौर में महिलाओं की मानसिक स्थिति भी समाज के अनुरूप ढल गई है।”
इस मामले में रजनी मुर्मू का भी कहना है कि झारखंड के आदिवासी समुदायों में भी बेटियों का यही हाल है। केवल बेटे के लिए पुरुष दूसरी या तीसरी शादी कर लेता है। कई बार बेटा न होने पर उसे घर की बेटी के लिए बाहर से किसी पुरुष को घर जमाई इसीलिए बनाया जाता है कि संपत्ति का अधिकार घर जमाई को मिले ना कि बेटी को। जिस जमाई को संपत्ति में अधिकार दिया जाता है शादी के वक्त उसे उस पूरे क्षेत्र में कौन सी एक और जमीन उसकी है उस पर उसका कदम रखवाया जाता है और इस तरह जमीन देने की रसम अदायगी की जाती हैं। आखिरकार यहां भी किसी संपत्ति का अधिकार पुरुष ही होता है
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यही हाल छत्तीसगढ़ में भी हैं जिसमें लड़के को लमसेना (घर जमाई) की संज्ञा दी गई है। जिन घरों में बेटे नहीं होते वहां किसी लड़के को बचपन से ही या आधी उम्र से उस लड़की के घर रखा जाता है और उस घर की बेटी से शादी करके ज़मीन का मालिक बनाया जाता है। लड़की इकलौती संतान होने के बावजूद अपने पिता के संपत्ति की हकदार नहीं बन पाती बल्कि घर जमाई ही उस संपत्ति का मालिक बनता है अगली पीढ़ी में भी अपने बेटों को ही हस्तांतरित करता है।
आगे रजनी मुर्मू बताती हैं कि आर्थिक समानता के नाम पर जो ज़मीन का जो हिस्सा दिया जाता है वह केवल भरण पोषण के लिए छोटा सा ही जमीन का टुकड़ा होता है उसमें भी उस महिला का हिस्सेदारी नहीं होती बल्कि किसी शर्त के आधार पर दी जाती है। संपत्ति में जमीन का हिस्सेदार तभी माना जाता जब वह उस जमीन को अपने लिए अपने किसी काम के लिए उसका उपयोग करती लेकिन भरण-पोषण के नाम पर दी गई ज़मीन वापस उनके भाइयों की हो जाती है। वह उसे आगे अपने बेटियों के नाम हस्तांतरित नहीं कर पाती।
बहरहाल देखा जाए तो वर्तमान पीढ़ी से तीसरी दशक की पीढ़ी ज्यादा प्रगतिशील थी वह बेटियों को पिता की संपत्ति में बराबर का हिस्सेदार बनाते थे। बस्तर के एक गांव से आनेवाले आदिवासी समुदाय के ही 65 पार कर चुके बुजुर्ग व्यक्ति निरघत कहते हैं कि उनके पिता ने अपने बच्चों में बराबर की संपत्ति बांटी थी। हालांकि, बहन बड़ी होने के कारण जमीन का कुछ भाग उनके हिस्से में ज्यादा आया था इसे उन्हें सहर्ष स्वीकार किया था।
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समुदाय को अपनी महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक सहभागिता पर चर्चा करनी चाहिए। साथ ही दुर्भावनापूर्ण असमानता के खिलाफ एकजुट होकर नये सुधार करने चाहिए। निश्चित तौर पर ग्रामसभा और रूढ़िवादी प्रथा सरकार और इस सिस्टम के खिलाफ लड़ने के लिए कारगर है, लेकिन इसका ढाल बनाकर अपने समुदाय की महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार नहीं होना चाहिए।
वर्तमान दौर में संभ्रांत परिवारों से आनेवाले आदिवासी समुदाय के लोग लैंगिक हिंसा, असमानता और घरेलू हिंसा को आदिवासी समुदाय का सामाजिक व्यवहार नहीं मानते। उनका कहना है कि चंद आदिवासियों की हरकत पूरे समुदाय की परिभाषा तय नहीं करती। इस तरह वे अपने समुदाय में होनेवाली हिंसा को नकारते हैं। इनके लिए महिलाओं को बराबर का दोषी साबित मानते हैं, जिनके साथ ऐसी घटनाएं होती हैं। इन्हें मामूली घटना कहकर ऐसी हिंसा को ‘समाज, इज्ज़त’ के नाम पर ढकने की कोशिश करते हैं। ऐसे संभ्रांत परिवारों से आनेवाले तथाकथित बुद्धिजीवी जमीनी स्तर की हकीकत से वाकिफ नहीं हैं। वे अपने इर्द-गिर्द के परिदृश्य से ही पूरे समुदाय का आंकलन करके सफेद झूठ बोलते हैं। समाज की वास्तविक स्थिति से अवगत होने के बावजूद ऐसी घटनाओं पर अमल करने के बजाय इसे सिरे से खारिज कर देते हैं।
जिस मातृसत्ता और मातृशक्तियों की बात वे करते हैं, उसी समुदाय में अपनी नन्हीं बच्चियों-बालिकाओं के साथ होते यौन हिंसा, बलात्कार और वैवाहिक बलात्कार की बात वे कभी नहीं करते। जिन बड़े-बड़े आयोजनों में मातृशक्तियों के नाम से कई आयोजन करवाए जाते हैं ऐसे कार्यक्रमों में सीमित से भी कम संख्या में महिलाएं मंचों पर अपने आपबीती और सामाजिक हिंसा की बात रख पाती हैं।
मुख्यधारा के और स्वयं सुविधाभोगी आदिवासी समुदाय से आनेवाले लोग यह कहते हुए कभी नहीं हिचकिचाते कि आदिवासियों में हीन भावना कूट-कूट कर भरी है। वही लोग यह कभी नहीं बताते की यह अप्रत्यक्ष हिंसा उन्हीं लोगों की देन हैं जो ऐसी बातें कहते हैं। आज जब बड़े शहरों में मुख्यधारा के बच्चे व्यक्तित्व विकास की बात करते हैं, उसे व्यवहारिक जीवन में जीते हैं तो यही आदिवासी समुदाय में लड़कियां अपने हक और अधिकारों से वंचित कर दी जाती हैं। किसी भी बड़े मंचों में आदिवासियों को केवल सुनने के लिए रखा जाता है अपनी बात कहने का मौका नहीं दिया जाता।
आंकलन कीजिए कि हमारा समुदाय कितना स्त्रीद्वेषी है। अपनी बहनों के साथ किस तरह भेदभावपूर्ण रवैया अपनाता है। स्वतंत्र सोच-विचार करने का माहौल प्रदान नहीं करता, अपनी चीजें को उन पर थोपता है। मां, बहन, बेटी का नाम लेकर चंद गीतों के जरिए महिलाओं को महिमामंडित करना, समानता की बात करना नहीं होता। बेशक हर समाज में अच्छाइयां और बुराइयां निश्चित तौर पर होती हैं। इसीलिए हमेशा इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोई भी समाज आलोचना से परे नहीं हो सकता।
बहरहाल, समुदाय को अपनी महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक सहभागिता पर चर्चा करनी चाहिए। साथ ही दुर्भावनापूर्ण असमानता के खिलाफ एकजुट होकर नये सुधार करने चाहिए। निश्चित तौर पर ग्रामसभा और रूढ़िवादी प्रथा सरकार और इस सिस्टम के खिलाफ लड़ने के लिए कारगर है, लेकिन इसका ढाल बनाकर अपने समुदाय की महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार नहीं होना चाहिए। जिस संविधान में ऐसे कानून बनाए हैं उसी संविधान में प्रावधान भी है कि किसी की अभिव्यक्ति की आजादी नहीं छीनी जा सकती।
ज़ाहिर तौर पर मैं इस बात से वाकिफ हूं कि इस देश और मुख्यधारा के समाज में आदिवासी समुदाय शोषक नहीं पीड़ित है। जल, जंगल, ज़मीन के साथ इनके कई सांस्कृतिक राजनीतिक और आर्थिक संघर्ष हैं। संभवतः शोषक और पीड़ित की भूमिका में यहां के पुरुष भी शामिल हैं। कभी-कभी यही पीड़ित पुरुष अपनी महिलाओं के लिए शोषक की भूमिका भी निभाते हैं। इस देश के संविधान निर्माता डॉक्टर बाबा साहब आंबेडकर ने कहा भी, ” मैं किसी समाज की उन्नति को इस आधार पर मापता हूं कि उस समाज में स्त्रियों की कितनी प्रगति हुई है।”
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तस्वीर साभार : India Times
बहुत बढ़िया वर्तमान स्थिति को अच्छा सन्देश दिया गया बहुत बधाई हो प्रकिति सेवा जोहार 🙏